"सरहदी गाँधी" उर्फ़ ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान आज़ादी की लड़ाई के वह जाबाज़ राजनेता थे जिन्हें "बच्चा खान", "बादशाह खान", जैसे नाम से जाना जाता था
"सरहदी गाँधी" उर्फ़ ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान आज़ादी की लड़ाई के वह जाबाज़ राजनेता थे जिन्हें "बच्चा खान", "बादशाह खान", जैसे नाम से जाना जाता था 
प्रेरणा

"सरहदी गाँधी" उर्फ़ ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान आज़ादी की लड़ाई के वह जाबाज़ राजनेता थे जिन्हें "बच्चा खान", "बादशाह खान", जैसे नाम से जाना जाता था

Pramod

"सरहदी गाँधी(Sarhadi Gandhi)" उर्फ़ ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान आज़ादी की लड़ाई के वह जाबाज़ राजनेता थे जिन्हें उनके काम और निष्ठा के लिए "बच्चा खान", "बादशाह खान(badshah khan)", जैसे नाम से जाने जाने लगे।

बादशाह खान(badshah khan) बलूचिस्तान पख़्तूनों(Baluchistan Pakhtun) के राजनेता थे। वैसे तो अहिंसा का जब भी नाम आता है लोगो की ज़बान पर महात्मा गाँधी (Mahatma Gandhi) का नाम आ जाता है लेकिन बादशाह खान अहिंसा के सहारे आज़ादी के लिए लड़ने और विद्रोह करने के लिए मशहूर है।

एक समय था जब उनका लक्ष्य संयुक्त, स्वतंत्र और धर्मनिरपेक्ष भारत था जिसे पाने के लिए उन्होंने 1930 में खुदाई खिदमतगार नाम के संगठन की स्थापना की। यह संगठन "सुर्ख पोशाक(surkh poshaak)" या "लाल कुर्ती दल(red kurti team)", के नाम से जाना जाता था।

गाँधी जी के कट्टर समर्थक होने के कारन ही उन्हें "सीमांत गाँधी(Frontier Gandhi)" कहा जाता था। खान बाबा(Khan Baba) ने खुद को हमेशा "स्वतंत्रता संघर्ष का सैनिक" कहा और समझा लेकिन उनके चाहने वालो और समर्थन कर्ताओं ने उन्हें सफल नायक की तरह ही देखा।

खान बाबा(Khan Baba) ने आज़ादी के लिए कई काष्ठ झेले, वह कई बार जेल गए और वहाँ घोर यातनाए सही लेकिन आज़ादी का सपना और मूल संस्कृति को उन्होंने सम्भ्भाल कर रखा।

जीवन परिचय

खान बाबा का जन्म पेशावर, पाकिस्तान में 6 फरवरी, 1890 में हुआ था। उनके परदादा अब्दुल्ला खान(Abdullah Khan) और दादा सैफुल्ला खान(Saifullah Khan) दोनों ही क्रन्तिकारी थे। वैसे तो उनकी गिनती सत्यवादी नेताओं में होती थी लेकिन उनका स्वभाव लड़ाकू था।

अँग्रेज़ों के खिलाफ लड़ना हो या पठानों के साथ हो रहे अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाना, दोनों ने यह काम बड़ी ही बहादुरी और साहस के साथ किया। खान बाबा भी अपने परदादा और दादा की तरह आज़ादी के ख्वाब सजा कर उसके लिए अहिंसा से लड़ा करते थे लेकिन उनके पिता बैराम खान(Bairam Khan) का स्वभाव थोड़ा अलग था।

उनकी नज़र में पढाई की बहुत अहमियत थी तभी उन्होंने खान बाबा को मिशन स्कूल के तहत भर्ती करवाया जिसका विरोध भी उन्हें झेलना पड़ा। मिशनरी स्कूल(missionary school) की पढाई करने के बाद वह अलीगढ(Aligarh) आगे की शिक्षा के लिए चाले गए लेकिन वहाँ रहने में परेशानी के कारन वह वापस गांव आ गए।

बाकी के वक्त वह पढाई में ध्यान दिया करते और गर्मी की छुट्टियों में वह देश सेवा किया करते। पढाई ख़त्म होने के बाद खान बाबा पूरी तरह से देश सेवा में उतर गए।

पेशावर(Peshawar) में 1919 में फौजी कानून या मार्शल लॉ लागु किया गया, खान बाबा ने उस समय शांति का प्रस्ताव पेश किया लेकिन फिर भी अंग्रेज़ों ने उन्हें जेल भेज दिया। ब्रिटिश सरकार की ख्वाहिश थी की झूठे आरोप में उन्हें जेल में ही बंद रखा जाये लेकिन किसी ने भी खान बाबा के खिलाफ झूठी गवाही नहीं दी और अंत में छह माह बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।

1930 में सत्याग्रह(Satyagraha) करने पर उन्हें फिर से जेल भेज दिया गया और उनका तबादला कर उन्हें गुजरात(Gujarat) के जेल भेजा गया। वहाँ जा कर उन्हें कई सिख और हिन्दू राजबंदी मिले। खान बाबा ने वहाँ सिख गुरुओं के ग्रन्थ पढ़े, गीता पढ़ी और हिन्दू-मुसलमानों के मेल-मिलाव की ज़रूरत को समझा।

तब जेल में उन्होंने गीता और कुरान के दर्जे लगाए और वही पर संस्कृत और उर्दू के ज्ञानी से सम्बंधित दर्ज को चलवाया। उनकी कोशिश से बाकी कैदी भी आकर्षित हुए और कुरान, गीता व गुरुग्रंथ साहिब को पढ़ने लगे।

उनका जीवन बड़े कष्ट और संघर्ष में बिता, कई बार जेल गए, भारत-पाकिस्तान का बटवारा देखा जिसके वह खिलाफ थे। 1987 में उन्हें सर्वश्रेष्ठ नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से नवाज़ा गया।

राजनीतिक जीवन

बिना किसी मुक़दमे के राजनीतिक असंतुष्टि के जुर्म में गिरफ्तार करने की इजाज़त देने वाले रॉलेट एक्ट(roulette act) के खिलाफ 1919 में हुए आंदोलन में खान बाबा को जेल भेज दिया गया। अगले ही साल वह खिलाफत आंदोलन में शामिल हुए जिसमें तुर्की के सुलतान के साथ-साथ भारतीय मुसलमानों के अधिकारों की बात हो रही थी।

फिर 1921 में वह अपने गृह प्रदेश के खिलाफत कमिटी के जिला अध्यक्ष चुने गए और उनका राजनीतिक सफर ज़ोर-शोर से शुरू हो गया।

1929 में कांग्रेस पार्टी की एक सभा में शामिल होने के बाद बाबा साहब ने खुदाई ख़िदमतगार या खुदा के सेवक संस्थान की स्थापना की और पख्तूनों के बीच लाल कुर्ती आंदोलन शुरू किया।

मृत्यु

देश के बटवारे के बाद इस फैसले का विरोध जताते हुए उन्होंने पाकिस्तान में रहने का फैसला किया। बटवारे के बाद बादशाह खान के रिश्ते भारत से जैसे टूट से गए थे।

उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ "स्वतंत्र पख़्तूनिस्तान आंदोलन(independent pakhtunistan movement)" आजीवन जारी रखा जिसके बाद पाकिस्तान सरकार ने उन्हें पेशावर के उनके घर में नज़रबंद कर दिया।

20 जनवरी, 1988 को उनकी मृत्यु हो गई और उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें जलालाबाद (Jalalabad), अफ़ग़ानिस्तान(afghanistan) में पुरे सम्मान के साथ दफना दिया गया।

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