अमेरिका के राष्ट्रपति ‘जो बाइडेन’ बन गए तो चीन का क्या होगा?

अमेरिका के राष्ट्रपति ‘जो बाइडेन’ बन गए तो चीन का क्या होगा?

Ashish Urmaliya | Pratinidhi Manthan

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप और उनके प्रतिद्वंदी जो बाइडन के बीच तीसरी प्रेसिडेंशियल डिबेट के दौरान डिबेट के संचालक ने जो बाइडेन से पूछा कि अगर आप राष्ट्र पति बनते हैं तो कोरोना वायरस पर चीन के पारदर्शिता न दिखाने पर चीन के साथ क्या करेंगे, उसे किस तरह सज़ा देंगे?  इस प्रश्न का जवाब देते हुए बाइडेन ने कहा, 'चीन को दंडित करने के लिए मैं अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुसार ठोस कार्रवाई करूंगा और सुनिश्चित करूंगा कि चीन भी अंतरराष्ट्रीय नियमों के हिसाब से ही चले.'

जैसा कि आप जानते हैं, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लगातार चीन पर कोरोना वायरस से जुड़ी जानकारियां छुपाने और इसे दुनियाभर में फैलने देने का आरोप लगाते रहे हैं. लेकिन चीन शुरुआत से ही इन आरोपों को ख़ारिज करता आया है. अमरीका में अब तक कोरोना वायरस से 2,30,000 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है. इस वायरस की वजह से अमरीकी अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान हुआ है. कुछ ज्यादा ही हो गया है.

हालांकि अमरीका की डेलावेयर यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान बाइडेन के इस बयान को भ्रामक मानते हैं. प्रोफेसर के अनुसार, 'डिबेट से पहले भी विदेश मामलों के जानकारों में ये राय थी कि बाइडन चीन को लेकर बेहद कमज़ोर है.' डोनाल्ड ट्रंप पर भी ये आरोप है कि उन्होने शुरुआत में चीन को रिझाने की कोशिश की और कोरोना वायरस के बाद वो प्रतिबंधों और कार्यकारी आदेशों की एक तरफा नीति पर चलने लगे.

प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान ने कहा, 'चीन न सिर्फ़ अमरीकी वर्चस्व को चुनौती दे रहा है बल्कि अंतरराष्ट्रीय नियमों और व्यवस्था को भी चुनौती ताक पर रख रहा है. अगर बाइडन के बयान के पीछे की भावना को देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि चीन एक नियमों का पालन करने वाला देश है और उसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए.' प्रोफेसर के अनुसार, जो बाइडन की विदेश नीति का यही एक कमज़ोर पक्ष है कि उनके मन में चीन पर कार्रवाई करने को लेकर हिचक है.

बीते लंबे वक्त में देखा गया है कि अमरीका और चीन के संबंधों में कई मुद्दों को लेकर भारी गिरावट आई है. जैसे, सबसे पहले तो व्यापार फिर कोरोना महामारी को लेकर चीन का रुख, तकनीक, हांगकांग का मुद्दा, दक्षिण चीन सागर, वीगर मुसलमान, टिकटॉक, ख़्वावे, जासूसी और साइबर धमकियां आदि.

एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफाम्र्स से संबद्ध संस्था 'पीईडब्ल्यू (प्यू)' के एक शोध के मुताबिक, दो तिहाई अमरीकी नागरिक चीन को लेकर नकारात्मक विचार रखते हैं. बोस्टन यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफ़ेसर आदिल नजम ने बताया है कि, 'अमेरिकी विदेश नीति के मामले में मुद्दा नंबर एक, मुद्दा नंबर दो और मुद्दा नंबर तीन, सिर्फ और सिर्फ चीन ही है.' लेकिन राजनैतिक दृष्टि से देखा जाए तो अभी ये स्पष्ट नहीं है कि चीन पर आक्रामक होने से वोट मिलेंगे या नहीं, वो भी तब जब आतंरिक मुद्दों की कोई कमी ही न हो.

साल 2017 में जारी हुई अमरीका की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में चीन का 33 बार ज़िक्र किया गया है.

राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के दस्तावेज़ में कहा गया है, कि 'चीन और रूस हमेशा से अमरीकी ताक़त, प्रभाव और हितों को चुनौती देते आए हैं और उसकी सुरक्षा और संपन्नता को ख़त्म करने का प्रयास करते हैं. चीन और रूस एक ऐसी दुनिया का निर्माण करना चाहते हैं जो अमरीकी मूल्यों और हितों के उलट हो.' जहां सिर्फ उन्हीं की बादशाहत हो, उनके ऊपर कोई न हो.

अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने इसी साल फ़रवरी के महीने में प्रांतों के गवर्नरों को दिए गए भाषण में चीन की ओर से उत्पन्न संभावित ख़तरों का ज़िक्र किया था. भाषण देते वक्त उन्होंने कहा था, कि 'चीन ने हमारी कमज़ोरियों का विश्लेषण कर लिया है और उसने हमारी स्वतंत्रताओं का फ़ायदा उठाने का फ़ैसला किया है ताकि वो संघीय, प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर हमसे आगे निकल सके.' इसीलिए ट्रंप प्रशासन ने चीन के ख़िलाफ़ समर्थन जुटाने के लिए वैश्विक अभियान शुरू किया है. ट्रंप चुनावी प्रचार के शुरूआती दिन से कहते आए हैं कि जो बाइडन चीन को लेकर बेहद नरम हैं.

आइये जानते हैं कि अगर जो बाइडन अमेरिका के राष्ट्रपति बने, तो उनका रुख क्या होगा?

सवाल उठते हैं कि क्या बाइडेन भी ट्रंप की ही तरह चीन के प्रति सख्त रहेंगे?, चीन को खुलेआम दो-टूक जवाब दे पाएंगे?  चीन के कारोबार पर अधिक टैक्स लगा सकेंगे व अन्य दूसरे क़दम उठा सकेंगे? वो जलवायु परिवर्तन, कारोबार, हांगकांग, मानवाधिकार और कोरोनावायरस के मुद्दे पर चीन से कैसे निपटेंगे?

हालिया ट्रंप के चुनाव प्रचार अभियान के दौरान एक  वीडियो तेज़ी से वायरल हुआ जिसमें जो बाइडन चीन के राष्ट्रपति शी ज़िनपिंग के साथ ग्लास टकरा कर चियर्स कर रहे हैं, कि 'चीन का समृद्ध होना हमारे हितों में हैं.' हालांकि बीते अप्रैल के महीने में विदेश नीति पर लिखे एक लेख में जो बाइडन ने ज़ोर दिया था कि अमरीका को चीन पर सख़्त रुख़ अख़्तियार करने की ज़रूरत है.

जो बाइडन के विज़न दस्तावेज़(चुनाव से पहले वोटरों को रिझाने के लिए जो जारी किया जाता है ) में कहा गया है, कि 'भविष्य में चीन या किसी और देश के ख़िलाफ़ प्रतिद्वंदिता में आगे रहने के लिए हमें अपनी नएपन की धार को और तेज़ करना होगा और दुनियाभर के लोकतांत्रिक देशों की आर्थिक ताक़त को एकजुट करना होगा.' अगर सिर्फ चीन को मद्देनज़र रख कर देखा जाए तो ये बयान भी भ्रमित सा करने वाला ही लग रहा है. कुछ लोग कहेंगे कि ये ट्रंप के विपरीत बहुपक्षीयता की नीति के लिए व्यापक रूपरेखा हो सकती है लेकिन इसका विवरण कहाँ हैं?

प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान ने कहा, कि 'ट्रंप के प्रशासन में  नज़रिया ये रहा कि अमरीका ने चीन को प्रतिद्वंदी के तौर पर स्वीकार कर लिया है, लेकिन बाइडेन इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं.' निःसंदेह बाइडेन चीन के आलोचक हैं, लेकिन एक नज़रिया ये भी है कि वो अमरीका की कमज़ोरी को भी स्वीकार करते हैं. और एक नज़रिया ये भी है कि अमरीका की चीन को नियंत्रित करने की नीति में अब बहुत देर हो चुकी है. चीन हाथ से निकल चुका है, पुनः नियंत्रण में वक्त लग सकता है.

दोनों देशों के रिश्तों के ग्राफ पर नज़र डालें तो  बहुत सी मज़ेदार बातें नज़र आती हैं-

साल 1972 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने चीन का दौरा किया था. प्रतिद्वंदिता और द्वेष बहुत पुराना है लेकिन निक्सन के उस दौरे ने दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ़ हटाया था. उस वक्त चीन पूरी दुनिया से कटा हुआ था लेकिन अमरीका चाहता था कि चीन एक ऐसा देश बने जो दुनिया भर से जुड़ा हो और दुनिया के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाए. लेकिन इसके उलट चीन अपनी विशाल अर्थव्यवस्था के दम पर अपने आप को अमरीका का रणनीतिक प्रतिद्वंदी मानने लगा है.

पंटाग के पूर्व अधिकारी और द हंड्रेड इयर्स मैराथन किताब के लेखक माइकल पिल्सबरी का कहना है, कि 'जिस तरह हम चीन का प्रबंधन कर रहे हैं चीन उससे बेहतर तरीके से हमारा प्रबंधन कर रहा है.' हमसे एक कदम आगे चल रहा है. पिल्सबरी की इस चर्चित किताब के कवर पर साफ साफ़ लिखा है- 'चीन की गुप्त रणनीति वैश्विक महाशक्ति के रूप में अमरीका की जगह लेना है.'

अलग राय- चीन का मकसद अमेरिका की जगह लेना नहीं है

अमेरिकी थिंक टैंक हेरिटेज फ़ाउंडेशन के सदस्य और विदेश मामलों के विशेषज्ञ जेम्स जे. कैराफानो का मानना है, कि बीते सालों में अमेरिका की रणनीति चीन के साथ विवादों को किनारे कर सहयोग को बढ़ाने की रही है. लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप के आने के बाद अमरीका की ये रणनीति एकदम उलट हो गई. जे. कैराफानो ने कहा , कि 'अब अमरीका की रणनीति ये है कि समस्याओं को नज़रअंदाज़ करने की वजाय उनका समाधान किया जाए और ये दिखाया जाए कि हम अपने हितों की रक्षा करने का ठोस इरादा रखते हैं.' उन्होंने कहा , 'भले ही जनवरी 2021 के बाद अमरीका में नया राष्ट्रपति हो लेकिन चीन को लेकर अमरीका की रणनीति में बहुत बदलाव नहीं होगा.' क्योंकि वैश्विक समीकरण ही कुछ ऐसे बन गए हैं.

अब सबसे बड़ा सवाल ये खड़ा होता है, कि क्या अमरीका ट्रंप स्टाइल वाली आक्रामकता जारी रखेगा या बाइडेन के नेतृत्व में अधिक कूटनीतिक और नपा-तुला रवैया अपनाएगा? इसका जवाब तो आने वाले वक्त में ही मिल पाएगा। लेकिन जगह लेने वाली बात का जवाब ढूंढें तो बकनेल यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय राजनीति और संबंधों के प्रोफ़ेसर झीकुन झू कहते हैं, 'वॉशिंगटन में कुछ लोग चीन को लेकर पागल हैं. चीन दुनिया की महाशक्तियों में से एक बनना चाहता है न कि अमरीका को हटाकर उसकी जगह लेना चाहता है.'

भारत और पाकिस्तान को क्या फर्क पड़ सकता है?

ऐतिहासिक तौर पर देखा जाए तो पाकिस्तान का अमरीका के साथ मज़बूत रिश्ता रहा है लेकिन अब उसका झुकाव चीन की तरफ अधिक है. जॉन हॉप्किंस यूनिवर्सिटी के डॉक्टर एसमएम अली का मानना है, कि पाकिस्तानी पक्ष में ये समझ बन रही है कि अपना सबकुछ चीन को सौंपने के बजाय अमरीका के साथ बीते 70 सालों से चले आ रहे रिश्तों को किनारे न करना बेहतर है. उन्होंने कहा, कि 'अमरीका भी पाकिस्तान को यूँ ही नहीं छोड़ सकता है क्योंकि उसके लिए अफ़ग़ानिस्तान अभी भी सम्मान का मुद्दा बना हुआ है.' भारत की बात करें तो भारत को हमेशा से ही अपनी गुट निरपेक्ष विदेश नीति पर गर्व रहा है लेकिन कुछ लोग ये तर्क भी दे सकते हैं कि भारत का अधिक झुकाव सोवियत कैंप की ओर रहा है.

हालांकि भारत ने चीन और अमेरिका दोनों के साथ अपने संबंधों में संतुलन बनाने की कोशिश की है. लेकिन गलवान घाटी में चीन के साथ हुई हिंसक झड़प में अपने सैनिकों की मौत के बाद भारत ने अमरीका के क़रीब आने में एक पल पल की भी हिचक नहीं दिखाई हैं. विदेश मामलों के विशेषज्ञ जेम्स जे. कैराफानो का मानना है कि अमरीका चीन को अपने अस्तित्व के लिए ख़तरे के तौर पर नहीं देखता है लेकिन भारत गुट निरपेक्षता के दौर से आगे बढ़ चुका है.उनका कहना है, कि 'भारत अब दुनिया में एक चीन विरोधी ताक़त रूप में उभर कर सामने आ रहा है.

हालांकि प्रोफ़ेसर झू के विचार इसके उलट हैं. उनका मानना है, कि 'शुरुआत से ही भारत की विदेश नीति स्वतंत्र रही है. गुट निरपेक्ष आंदोलन में उसका अहम नेतृत्व रहा है. मुझे लगता है कि भारत को इसी रास्ते पर ही आगे बढ़ना चाहिए.' अपनी छवि इसी तरह बरक़रार रखनी चाहिए.

भारत को इस कूटनीतिक पैंतरेबाजी में अपने अगले कदम को बहुत सोच-समझकर उठाना होगा. एमआईटी के राजनीति शास्त्र विभाग के प्रोफ़ेसर एडन मिल्लिफ ने कहा, 'एस. जयशंकर ने कहा है कि भारत हमेशा अपना पक्ष चुनेगा… अगर यह बयानबाजी है तो ये भारत की अपनी स्वतंत्रता के लिए आवाज़ उठाने की लंबी और मज़बूत परंपरा का ही हिस्सा है.' खैर, फ़िलहाल हम सभी को अमेरिका के चुनाव परिणामों के आने का इंतज़ार है. इनपुट- बीबीसी हिंदी

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