देश के आठवें प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह, वंचितों, पिछड़ी जातियों के लिए मसीहा थे

सन् 1951 में सन्त विनोबा भावे द्वारा भूदान आन्दोलन प्रारंभ किया गया था। यह एक स्वैच्छिक भूमि सुधार आन्दोलन था। बिनोवा भावे के इस आंदोलन में सन् 1957 में वीपी सिंह ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। श्री सिंह अपनी जागीर की अधिकतर ज़मीनें दान में दे दी थीं जिसके चलते पारिवारिक विवाद हो गया, मामला न्यायलय तक जा पहुंचा था।
देश के आठवें प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह, वंचितों, पिछड़ी जातियों के लिए मसीहा थे
देश के आठवें प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह, वंचितों, पिछड़ी जातियों के लिए मसीहा थे

कक्षा 9 में नागरिक शास्त्र (Civics) की किताब में आपने मंडल आयोग (Mandal Commission) के बारे में ज़रूर पढ़ा होगा। नहीं पढ़ा? कोई बात नहीं। किसी ऐसे विद्यार्थी से पूछिएगा जो कलेक्टर बनने की या पब्लिक सर्विस से जुड़े किसी भी एग्जाम की तैयारी कर रहा हो वो आपको बताएगा मंडल आयोग क्या है। खैर, किसी और से क्यों पूछना जब मैं यहां बैठा हूं। मैं बताता हूं न।

दरअसल, मंडल आयोग का काम देश में सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ों की पहचान कराना था। ऐसे लोगों की पहचान करके उन्हें आरक्षण दिलाने के उद्देश्य से मंडल आयोग का गठन किया गया था। सन् 1979 में तत्कालीन जनता पार्टी (मोरारजी देसाई) की सरकार द्वारा इसकी स्थापना कर दी गई थी। मंडल ने ऐसी 3743 जातियां ढूंढ निकालीं और उनको सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक मापदंडो के आधार पर सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ा घोषित करके उन्हें नौकरी में 27% आरक्षण देने के लिए रिपोर्ट तैयार कर ली। रिपोर्ट 1980 तक तैयार हो चुकी थी लेकिन तब तक जनता पार्टी की सरकार गिर चुकी थी। ये जातियां उस वक्त देश की कुल जनसंख्या की 54% थीं। 1980 में इंदिरा सत्ता में वापस आईं और ये रिपोर्ट ठंडे बस्ते में चली गई।

फिर आया साल 1989 आया नहीं जा ही रहा था। 2 दिसंबरको देश के नए प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह बने। 1990 में वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की फाइल को ठंडे बस्ते से बाहर निकाला। फिर भारत की राजनीति में एक नए सामाजिक न्याय के मसीहा का उदय हुआ। वी.पी. सरकार ने 7 अगस्त 1990 को मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर दीं। हालांकि, इस घोषणा के साथ ही पूरे देश में आरक्षण के विरोध की आग भड़क उठी। उस दौर का मंज़र बहुत भयानक था देशव्यापी विरोध प्रदर्शन होने लगे। छात्र संगठनों से लेकर जनता पार्टी के भीतर का विरोध की आग भड़क चुकी थी। देशभर में कई जगह लाठी चार्ज हुए, फायरिंग हुई, आग लगी लेकिन सरकार अपने फैसले पर अड़ी रही। सहयोगी दलों ने सरकार पर दबाव बनाया। बीजेपी ने वीपी सिंह की नेशनल फ्रंट की सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा कर दी। बीजेपी समर्थन वापस लेती उससे पहले 7 नवंबर 1990 को वी.पी. सिंह ने स्वयं पद त्याग दिया।

इस आर्टिकल में उन्हीं वी.पी. सिंह की बात होने वाली है....

विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म 25 जून 1931 उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में एक समृद्ध राजपूत ज़मीनदार परिवार में हुआ था। उनके पिता राजा बहादुर राय गोपाल सिंह जी ने मंडा संपत्ति पर शासन किया था। श्री विश्वनाथ ने इलाहाबाद और पूना विश्वविद्यालय से अपनी शिक्षा प्राप्त की। राजनीति कॉलेज से ही शुरू कर दी थी। 1947 में मात्र 16 साल की उम्र में वे उदय प्रताप कॉलेज, वाराणसी के विद्यार्थी यूनियन के अध्यक्ष बन गए थे। बाद में श्री सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्टूडेंट यूनियन के उपाध्यक्ष भी रहे। विद्यार्थी जीवन में वे इलाहाबाद की अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अधिशासी प्रकोष्ठ के सदस्य भी रहे। पढ़ने में बहुत तेज़ थे और वैज्ञानिक बनना चाहते थे। पढ़ाई-लिखाई जारी रही इसके बाद साल 1955 में उनके जन्मदिन वाले दिन यानि 25 जून को उनकी शादी श्रीमती सीता कुमारी के साथ सम्पन्न करा दी गई। जिसके बाद उन्हें दो पुत्र रत्न प्राप्त हुए। चैप्टर क्लोज।

नया चैप्टर प्रारंभ...

अपनी ज़मीनें दान दे दी थीं

सन् 1951 में सन्त विनोबा भावे द्वारा भूदान आन्दोलन प्रारंभ किया गया था। यह एक स्वैच्छिक भूमि सुधार आंदोलन था। बिनोवा भावे के इस आंदोलन में सन् 1957 में वीपी सिंह ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। श्री सिंह ने अपनी जागीर की अधिकतर ज़मीनें दान में दे दी थीं जिसके चलते पारिवारिक विवाद हो गया, मामला न्यायलय तक जा पहुंचा था।

श्री विश्वनाथ की राजनीति

राजनीति में शुरुआत से ही दिलचस्पी थी। परिवार से समृद्ध थे इसलिए युवा अवस्था में ही राजनीति में सफलता प्राप्त हो गई। भारतीय कांग्रेस पार्टी के साथ जुड़े। 1969 से 71 तक उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य रहे फिर 1971 से लेकर 26 जुलाई 1980 तक लगातार संसद (लोकसभा) सदस्य एवं मंत्री भी रहे। 1980 में ही 9 जून को उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। 28 जून 1982 यानि लगभग 2 साल वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। आपके मन में सवाल उठ रहा हो कि सिर्फ दो साल मुख्यमंत्री क्यों रहे? विचार आया होगा शायद सरकार गिर गई होगी। जी नहीं, श्री वी.पी. सिंह एकदम ठोस स्वभाव के जुबान के पक्के राजनेता थे। कोई पक्षधर बात नहीं कर रहा हूं, लेकिन आज के समय में दिन के उजियारे में भी हाथ में दिया लेकर निकलेंगे ऐसे नेता नहीं मिलेंगे।

दरअसल हुआ ये था कि जब वी.पी. सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तब उन्होंने जनता से वादा किया था कि उत्तर प्रदेश में डाकुओं को नामोनिशान तक नहीं रहने दूंगा, सफल नहीं रहा तो इस्तीफ़ा जेब में है। उस समय यूपी में डाकुओं का भयंकर आतंक हुआ करता था। दुर्भाग्य ऐसा रहा कि उनके स्वयं के जज (Magistrate) भाई को ही अनजाने में डाकुओं ने मार दिया था, भाई जंगल सैर पर गए थे डाकुओं को जानकरी नहीं थी कि ये मुख्यमंत्री के भाई हैं। इसके बाद श्री वी.पी. सिंह ने मुख्यमंत्री पद से रिजाइन कर दिया।

प्रधानमंत्री बने...

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश की बागडोर राजीव गांधी के हाथ में आई। राजीव सरकार में वी.पी. सिंह को पहले वित्त मंत्री फिर रक्षा मंत्री पद का कार्यभार सौंपा गया। 1984 में राजीव के प्रधानमंत्री बनते ही पार्टी में बहुत से नए लोग पॉवर में आ गए जिसके चलते पार्टी के अंदर नए और पुराने लोगों के बीच तनातनी का माहौल बनना शुरू हो गया। वी.पी. सिंह पार्टी के कद्दावर एवं वरिष्ठ नेता थे। कई मामलों में पार्टी से उनकी तकरार भी होती रहती थी। कहीं न कहीं वीपी सिंह खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार समझते थे और मन ही मन प्रधानमंत्री बनने का सपना संजो रहे थे। पार्टी से उनके तकरार की एक मुख्य वजह पार्टी में व्याप्त भ्रष्टाचार भी था। उनके पास सूचना थी कि कई भारतीय धन्नासेठ विदेशी बैंकों में खूब सारा काला धन जमा कर रहे हैं। वीपी सिंह वित्त मंत्री थे उन्होंने तुरंत एक अमेरिकी खुफिया एजेंसी फेयरफैक्स की नियुक्ति कर दी जो इसके बारे में फुख्ता जानकारी इकठ्ठा करती।

राजीव सरकार के बुरे दिनों की शुरुआत हो चुकी थी क्योंकि 16 अप्रैल 1987 को स्वीडन ने यह समाचार प्रसारित कर दिया कि भारत का स्वीडन की बोफोर्स कंपनी के साथ 410 तोपों का सौदा हुआ था जिसमें 60 करोड़ रुपये कमीशन के तौर पर दिए गए थे। फिर क्या था, देखते ही देखते यह खबर भारतीय मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज़ बन गई और इसे 'बोफोर्स घोटाले' का नाम दे दिया गया। इस कमिशनखोरी में अमिताभ बच्चन समेत कांग्रेस के कई दिग्गज नेताओं का नाम सामने आये। मिस्टर क्लीन की छवि वाले राजीव के लिए यह सबसे बड़ा झटका था।

विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इस बेहतरीन मौके को लपक के पकड़ा। उन्होंने खुद को राजीव से अलग दिखाने के लिए उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। सूखे जंगल में लगी आग की तरह यह बात देशभर की जनता के बीच फैला दी गई कि राजीव सरकार भ्रष्ट है, बोफोर्स तोपें अच्छी नहीं हैं, दलाली में खरीदी गई हैं आदि। हालांकि, सीधे तौर पर राजीव के खिलाफ कोई भी आरोप सिद्ध नहीं हो पाया था। खिलाफत करने के जुर्म में साल 1987 में वी.पी. सिंह को कांग्रेस से अलग कर दिया गया। कांग्रेस से अलग होते ही वी.पी. ने राजीव के खिलाफ एक से बढ़कर एक खुलासे करने शुरू दिए और उन्हें जनता अदालत में खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि बोफोर्स की दलाली की रकम 'लोटस' नाम के विदेशी बैंक में जमा कराई गई है। खासतौर पर युवाओं के बीच उनकी लोकप्रियता और बढ़ गई, वे युवाओं के साथ मोटरसाइकिल पर ही घूमने निकल जाया करते थे।

1988 में वी.पी. ने 'राष्ट्रीय मोर्चा' नाम की एक पार्टी का गठन कर दिया। 1989 में लोकसभा चुनाव हुए पर किसी भी पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं हो पाया। तब वी.पी. ने केंद्र में गठबंधन की सरकार बनाई। एक ओर से उनको भारतीय जनता पार्टी और दूसरी तरफ से देशभर की वामपंथी पार्टियों का समर्थन प्राप्त हो गया। वी.पी. सिंह ने देश के आठवें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। हालांकि, राष्ट्रीय मोर्चा की यह सरकार 11 महीनों से ज़्यादा नहीं चल पाई क्योंकि 1991 में रथयात्रा के समय बीजेपी के सबसे बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी हो गई थी। इसके तुरंत बाद भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय मोर्चा से अपना समर्थन वापस ले लिया। वी.पी. सिंह ने उत्तर प्रदेश की राजनीति को पूरी तरह से बदल कर रख दिया था। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को लगभग समाप्त करने का श्रेय उन्हीं को दिया जाता है। उन्हीं के चलते उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अब तक नहीं उबार पा रही है। सवर्ण वोट बीजेपी झटक चुकी थी, दलित वोट कांशीराम और मुख्य ओबीसी वोट वीपी सिंह ने मंडल आयोग लागू करके झटक लिया था। यहीं से यूपी में मुलायम सिंह यादव और बसपा से कांशीराम जैसे नेताओं का उदय हुआ।

77 वर्ष की आयु में 27 नवम्बर 2008 को वी. पी. सिंह का निधन दिल्ली के अपोलो हॉस्पिटल में हो गया।

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