आयरन लेडी 'इंदिरा गांधी': शुरुआत अंत से होगी!

देश की पहली एवं एकलौती महिला प्रधानमंत्री श्री मती इंदिरा गांधी जिन्हें आयरन लेडी, हिंदी में कहें तो लौह महिला के नाम से जाना जाता है। आप इनका नाम गूगल पर टाइप करेंगे तो सामने से अनगिनत लेखों की बौछार हो जाएगी। इनके बारे में इतना ज्यादा लिखा गया है कि अगर आप किशोर अवस्था में पढ़ने बैठेंगे तो प्रौढ़ावस्था तक पहुंच जायेंगे लेकिन पूरा नहीं पढ़ पाएंगे। इन लेखों में आज मैं भी थोड़ी सी बढ़ोत्तरी करने जा रहा हूं।
आयरन लेडी 'इंदिरा गांधी': शुरुआत अंत से होगी!

हल्की सर्द हवाओं वाला अक्टूबर का महीना था, 31 तारीख, साल 1984। समय की पाबंद देश की तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सुबह जल्दी बिस्तर का त्याग कर दिया और अपनी नित्य क्रियाएं कर तैयार होने लगीं। दरअसल, आयरन लेडी को एक ब्रिटिश अभिनेता पीटर उस्तीनोव को आयरिश टेलीविजन के लिए एक साक्षात्कार देना था, पीटर इंदिरा पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बना रहे थे। सुबह 5 बजे से लेकर 9 बजे तक आवास पर बहुत कुछ हुआ जो एक सामान्य घर में होता है। 9 बजकर 10-12 मिनट का वक्त रहा होगा, इंदिरा कमरे से बाहर निकलीं। प्रधानमंत्री के शुरूआती पहरे में पहले गेट पर दो जवान सतवंत सिंह और बेअंत सिंह लगे हुए थे। जैसे ही इंदिरा गांधी ने पहला छोटा गेट क्रॉस किया, बेअंत सिंह ने अपने बगलवाले शस्त्र का उपयोग कर उन पर तीन गोलियां दाग दीं। इसके तुरंत बाद सतवंत सिंह ने एक स्टेन कारबाईन का उपयोग कर निर्दयिता से उनका शरीर छलनी कर दिया। उन पर 33 गोलियां फायर की गई थीं जिनमे से 30 उनके शरीर में लगीं और उन 30 में से 23 गोलियां उनके शरीर को छेदते हुए पार चली गईं। जब ये घटना हुई तब घडी पर 9 बजकर 29 मिनट का वक्त था. बेअंत सिंह अपने हथियार डालते हुए बोला 'हमें जो करना था हमने कर दिया, अब तुम्हें जो करना हो करो।' वहां पर मौजूद अन्य सुरक्षा जवानों ने बेअंत सिंह को वहीं पर गोली मार दी और 22 वर्षीय सतवंत सिंह को गिरफ्तार कर लिया। उस वक्त उस जगह का माहौल ऐसा हो चुका था जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। आनन-फानन इंदिरा जी को एम्स ले जाया गया लेकिन तब तक उनकी सांसें टूट चुकी थीं। कुछ समय बाद जब पूरे देश को ये खबर सुनने को मिली, तब देश का माहौल ठीक वैसा ही था जैसा किशोर अवस्था में किसी बेटे के सर से बाप का साया उठ जाने के बाद घर का होता है।

19 नवंबर 1917 को जन्मी एक सर्वशक्तिशाली महिला, देश की प्रधानमंत्री इंदिरा की 66 वर्ष की उम्र में 31 अक्टूबर 1984 को मृत्यु हो गई।

मृत्योपरांत लोगों के मन में कई तरह की बातें उठीं, उस दिन उन्होंने बुलेटप्रूफ जैकेट क्यों नहीं पहनी थी?

अपनी राय रखूं तो शायद आयरन लेडी ने उस इंटरव्यू के चलते बुलेटप्रूफ जैकेट नहीं पहनी होगी। इंटरव्यू के बाद उनके दिन भर के अन्य प्रोग्राम भी फिक्स थे। शायद तब जैकेट पहनने का विचार मन में रहा होगा। दोपहर में उन्हें ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री जेम्स कैलेघन और मिजोरम के एक नेता से मिलना था। शाम को वो ब्रिटेन की राजकुमारी ऐन को भोज देने वाली थीं।

एक दिन पहले 30 अक्टूबर को उड़ीसा में भाषण दिया, कुछ ऐसा कहा जैसे कि हर बात का अंदाज़ा पहले से ही हो।

इंदिरा गांधी का भाषण उनके सूचना सलाहकार एचवाई शारदा प्रसाद तैयार किया करते थे। लेकिन उस दिन अपने जीवन के आखिरी चुनावी भाषण में इंदिरा ने अचानक शारदा प्रसाद द्वारा तैयार आलेख से हटकर कुछ अलग ही बोलना शुरू कर दिया। अचानक उनके बोलने का तेवर भी बदल गया। इंदिरा गांधी बोलीं, 'मैं आज यहां हूं। कल शायद यहां न रहूं। मुझे चिंता नहीं मैं रहूं या न रहूं। मेरा लंबा जीवन रहा है और मुझे इस बात का गर्व है कि मैंने अपना पूरा जीवन अपने लोगों की सेवा में बिताया है। मैं अपनी आखिरी सांस तक ऐसा करती रहूंगी और जब मैं मरूंगी तो मेरे खून का एक-एक कतरा भारत को मजबूत करने में लगेगा।'

वो कहते हैं ना नियति पहले से ही आगाह कर देती है। ऐसा ही कुछ उस दिन भी हुआ।

आगे इस लेख में हम आयरन लेडी (Iron lady) के नाम या जीवन से जुड़े नकारात्मक पहलुओं (विवादों) पर नज़र डालेंगे, तो आइए...

  • ऑपरेशन ब्लू स्टार

इंदिरा गांधी की हत्या के पीछे का मुख्य कारण ऑपरेशन ब्लू स्टार (Operation Blue Star) माना जाता है। यह 3 से 6 जून 1984 को भारतीय सेना द्वारा अमृतसर (पंजाब, भारत) स्थित हरिमंदिर साहिब परिसर को ख़ालिस्तान समर्थक जनरैल सिंह भिंडरावाले और उनके समर्थकों से मुक्त कराने के लिए चलाया गया अभियान था। उस वक्त पंजाब में भिंडरावाले के नेतृत्व में अलगाववादी ताकतें सशक्त हो रही थीं जिन्हें पाकिस्तान से भारी समर्थन मिल रहा था। भारतीय सेना 3 जून को अमृतसर पहुंची और स्वर्ण मंदिर परिसर को घेर लिया, जहां भिंडरावाले और उनके समर्थकों कब्ज़ा कर लिया था। शाम को शहर में कर्फ़्यू लगा दिया गया। अगली सुबह यानी 4 जून को सेना ने गोलीबारी शुरु कर दी ताकी मंदिर में मौजूद मोर्चाबंद चरमपंथियों के हथियारों, असलहों और ताकत का अंदाज़ा लगाया जा सके। चरमपंथियों द्वारा उस गोलीबारी का इतना तीखा जवाब दिया गया कि सेना को पीछे हटना पड़ा। चरमपंथियों की ताकत देखते हुए सेना द्वारा 5 जून को बख़तरबंद गाड़ियों और टैंकों को इस्तेमाल करने का निर्णय किया गया। 5 जून की रात को सेना और चरमपंथियों के बीच असली भिड़ंत शुरु हुई।

लड़ाई इतनी भयंकर हुई कि स्वर्ण मंदिर परिसर लाशों से पट गया। भीषण जान माल का नुकसान हुआ। भारत सरकार द्वारा जारी किए गए श्वेतपत्र के अनुसार भारतीय सेना के 83 सैनिक मारे गए और 249 घायल हुए। 493 चरमपंथी व आम नागरिक मारे गए, 86 घायल हुए। सोच कर देखिये जिस परिसर में लगभग पौने छः सौ लाशें और घायल लोग पड़े रहे होंगे वहां का मंज़र क्या रहा होगा?

अकाल तख़्त (काल से रहित परमात्मा का सिंहासन), सिखों के 5 तख्तों में से एक जो हरिमन्दिर साहिब परिसर अमृतसर में स्थित है। इस कार्यवाही में इस अकाल तख़्त को गंभीर रूप से नुकसान हुआ, बाद में भारत सरकार द्वारा इसे पुनः निर्मित भी किया गया था। स्वर्ण मंदिर पर भी गोलियां चलीं। ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सिख पुस्तकालय भी जल गया था। ये सभी स्थान धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण थे। इस कार्यवाही की निंदा के पीछे के कई कारणों में से एक मुख्य कारण सिख धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचना भी रहा।

इस ऑपरेशन ब्लूस्टार में मुख्य भूमिका के चलते इंदिरा गांधी सिखों के बीच अत्यंत अलोकप्रिय हो गयीं। स्वर्ण मंदिर परिसर में सेना के जवानों का जूतों के साथ कथित प्रवेश और मंदिर के पुस्तकालय में सिख धर्मग्रंथों और पांडुलिपियों के कथित रूप से नष्ट होने के कारण सिख संवेदनाएं आहत हुईं थीं। इस कार्यवाही से सरकार के प्रति अविश्वास का माहौल पैदा होने लगा, उस वक्त कई प्रमुख सिखों ने या तो अपने पदों से इस्तीफ़ा दे दिया या फिर विरोध में सरकार द्वारा दिए गए सम्मान लौटा दिए। इस कार्रवाही की अनुमति देने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भयंकर निंदा का सामना करना पड़ा और अंत में उनकी हत्या तक कर दी गई। हालांकि इंदिरा गांधी ने खूब प्रयास किए कि सिखों के बीच बनी उनकी गलत छवि को बदला जाए, इसी के चलते उन्होंने अपने विशेष सुरक्षा दल में सिख अंगरक्षकों को फिर से बहाल करने का आदेश दिया, जिसमें बेअंत सिंह और सतवंत सिंह भी शामिल थे।

  • इमरजेंसी (Emergency) को लेकर भी वैश्विक निंदा का सामना करना पड़ा

इमरजेंसी को भारतीय राजनीति के इतिहास का काला अध्याय भी माना जाता है। 25 जून 1975 की आधी रात को देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई जो 21 मार्च 1977 तक लागू रही। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शिफारिश पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने संविधान की धारा 352 के तहत देश में आपातकाल की घोषणा कर दी थी। अगले सुबह यानी 26 जून को समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा गांधी की आवाज में आपातकाल की घोषणा के बारे में सुना। आपातकाल (Emergency) के पीछे कई वजहें बताई जाती है, जिसमें सबसे अहम है 12 जून 1975 को इलाहबाद हाईकोर्ट की ओर से इंदिरा गांधी के खिलाफ दिया गया फैसला। दरअसल, 12 जून 1975 को इंदिरा गांधी को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दोषी पाया था और अपने फैसले में उन्हें छः साल के लिए पद से बेदखल कर दिया था। इंदिरा गांधी पर वोटरों को घूस देने, सरकारी मशीनरी का गलत इस्तेमाल, सरकारी संसाधनों का गलत इस्तेमाल करने जैसे 14 आरोप सिद्ध हुए थे, लेकिन इंदिरा गांधी ने सभी आरोपों का खंडन करते हुए न्यायपालिका के फैसले का उपहास किया। राज नारायण इंदिरा गांधी के चुनावी प्रतिद्वंदी थे, वे 1971 में रायबरेली में इंदिरा गांधी के हाथों हार का सामना करना पड़ा था। इसी के चलते उन्होंने हारने के बाद इंदिरा गांधी के खिलाफ केस दर्ज कराया था। जस्टिस जगमोहनलाल सिन्हा ने यह फैसला सुनाया था।

आपातकाल व उस दौरान क्या- क्या हुआ?

- इंदिरा गांधी ने इलाहबाद हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में अपील की। 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश बरकरार रखा, लेकिन इंदिरा को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बने रहने की इजाजत दी जो कि होना भी जरुरी था क्योंकि राजतंत्र यही कहता है।

- 25 जून 1975 को जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा के न चाहते हुए भी इस्तीफा देने तक देशभर में 'संपूर्ण क्रांति आदोलन' के तहत रोज प्रदर्शन करने का आह्वाहन किया। (इमरजेंसी लगने के पीछे का यह दूसरा मुख्य कारण था।)

- 25 जून 1975 को राष्ट्रपति के अध्यादेश पास करने के बाद सरकार ने देश में आपातकाल लागू कर दिया।

इसके बाद...

- सभी विदेशी पत्रकारों को वापस भेज दिया गया।

- सरकार ने पूरे देश को एक बड़े जेलखाने में बदल दिया।

- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) को प्रतिबंधित कर दिया गया, क्योंकि सरकार का यह मानना था कि इस संगठन की विपक्षी नेताओं के साथ ज्यादा घनिष्टता है। साथ ही सरकार को इस बात का भी संदेह था कि इसका बड़ा संगठनात्मक आधार सरकार के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन कर सकता है। सरकार के आदेश पर पुलिस इस संगठन पर टूट पड़ी और उसके हजारों कार्यकर्ताओं को जेल में बंद कर दिया गया।

- सभी विपक्षी दलों के नेताओं और सरकार के अन्य स्पष्ट आलोचकों के गिरफ्तार कर लिया गया। इस मंज़र को देख कर पूरा भारत सदमे की स्थिति में था।

- सिर्फ गिरफ्तार ही नहीं किया गया, कई नेताओं को बुरी तरह प्रताड़ित भी किया गया। प्रताड़ना ऐसी-वैसी नहीं थी, रोंगटे खड़े कर देने वाली थी।

- संविधान में सरकार हितैशी कई तरह के संसोधन किए गए।

- इलाहाबाद हाई कोर्ट पर रायबरेली को चुनाव रद्द करने वाले फैसले को बदलने को लेकर विशेष दबाव बनाया गया।

- महिला बंदियों के साथ भी अशोभनीय व्यवहार किया गया। जयपुर (गायत्री देवी) और ग्वालियर (विजयाराजे सिंधिया) की राजमाताओं को असामाजिक और बीमार बंदियों के साथ रखा गया। मृणाल गोरे (महाराष्ट्र की समाजवादी नेता) और दुर्गा भागवत (समाजवादी विचारक) को पागलों के बीच रखा गया। श्रीलता स्वामीनाथन (राजस्थान की कम्युनिस्ट नेता) को खूब अपमानित किया गया। महिला बंदियों के साथ गंदे मजाक की शिकायतें भी मिलीं।

- अंग्रेजी दैनिक अखबार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ का प्रकाशन रोकने के लिए बिजली के तार तक काट दिए गए। इस बात का पूरा प्रयास किया गया कि नेताओं की गिरफ्तारी और उनके साथ हो रहे अत्याचार की सूचना आम जनता तक न पहुंचे।

आलोचकों द्वारा ऐसा कहा जाता है कि उस दौर में इतना ज्यादा अत्याचार किया गया था जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। फ़िल्मी सितारों, गायकों को ब्लैकलिस्ट कर दिया गया था। विरोध करने वाले पत्रकारों, वकीलों यहां तक की जजों तक को नहीं बख़्शा गया था। मानव अधिकारों की पूरी तरह धज्जियां उड़ा दी गई थीं।

(1985 में कलकत्ता से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका ‘रविवार’ में प्रकाशित हुए जाने-माने समाजवादी चिंतक सुरेंद्र मोहन के लेख में इन सभी बातों का ज़िक्र मिलता है)

- 1976, सितंबर के महीने में संजय गांधी ने देशभर में पुरुष नसबंदी को अनिवार्य करने का आदेश दे दिया। इसके पीछे सरकार का उद्देश्य देश की बढ़ती आबादी को नियंत्रित करना था। पुरुष नसबंदी अभियान के तहत लोगों की इच्छा के विरुद्ध उनकी नसबंदी की गई। इस अभियान में एक नाम बहुत तेज़ी से उभर कर सामने आया था- रुखसाना सुल्ताना, जो एक समाजवादी थीं और संजय गांधी के करीबी सहयोगियों में से एक होने के लिए जानी जाती थीं। उन्होंने पुरानी दिल्ली के मुस्लिम क्षेत्रों में संजय गांधी के नसबंदी अभियान में नेतृत्व करते हुए अभियान को भारी सफलता दिलाई थी। (आपातकाल के दौरान एक नारा भी प्रचलन में आया था 'आपातकाल के तीन दलाल - संजय, विद्या, बंसीलाल') इनके बारे में हम आपको फिर कभी बताएंगे, बस इतना जान लीजिए कि इमरजेंसी के दौरान विद्याचरण शुल्क सूचना एवं प्रसारण मंत्री और बंसीलाल गृह मंत्री थे।

- 18 जनवरी, 1977- इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग करते हुए घोषणा की कि मार्च मे लोकसभा के लिए आम चुनाव होंगे। सभी राजनैतिक बन्दियों को रिहा कर दिया गया।

- 23 मार्च 1977 - आपातकाल समाप्त

- 16 से 20 मार्च को देश के छठे लोकसभा के चुनाव सम्पन्न हुए। देशभर में भारी विरोध के चलते नतीजों में कांग्रेस को ज़बरदस्त हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई। मोरारजी देसाई देश के चौथे प्रधानमंत्री बने।

मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली सरकार ने आपातकाल के दौरान पिछली सरकार द्वारा की गई ज्यात्तियों की जांच के लिए 'शाह आयोग' गठित किया।

  • इंदिरा गांधी के पति को लेकर तब भी विवाद बना रहता था आज भी बना रहता है

शादी के बाद इंदिरा और फ़िरोज़ के आपसी संबंध बहुत अच्छे रहे ऐसा बिलकुल भी नहीं कहा जा सकता। कई पुस्तकों के संदर्भ से यह बात निकल कर सामने आई है कि इंदिरा और फ़िरोज़ के आपसी रिश्ते में कई तरह के मतभेद थे। दोनों का वैवाहिक जीवन ज्यादा समय तक खुशहाल नहीं रहा। लेकिन इसके उलट देश की राजनीती में इंदिरा के पति फ़िरोज़ गांधी के धर्म को लेकर अक्सर विवाद बना रहता है।

कुछ आलोचक फ़िरोज गांधी (Feroze Gandhi) को मुस्लिम बताते हैं, कुछ जानकार पारसी तो कुछ समर्थक 'हिन्दू'। यहां पर जानकार लोग सही हैं क्योंकि फ़िरोज़ गांधी एक पारसी थे। उनका जन्म 12 सितंबर, 1912 को मुंबई में निवासरत एक गुजराती पारसी परिवार में हुआ था। स्वतंत्रता सैनानी के पहले उनका नाम फ़िरोज़ जहांगीर घांदी था। अच्छे खासे पढ़े लिखे व्यक्ति थे, शुरूआती शिक्षा अपनी मां की एक संबंधी के साथ रहकर इलाहबाद से प्राप्त की, उच्च शिक्षा के लिए साल 1935 में लंदन चले गए। वहां के ‘स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स’ से उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कानून में ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की थी।

फ़िरोज़ की प्रारंभिक शिक्षा के दौरान इलाहाबाद स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियों का केंद्र था। युवक फिरोज जहांगीर घांदी इसके प्रभाव में आए और नेहरू परिवार से भी उनका संपर्क हुआ। साल 1928 में उन्होंने साइमन कमीशन के बहिष्कार में बढ़ चढ़ का भाग लिया और 1930-1932 के आंदोलन में जेल की सजा काटी। साल 1933 में फ़िरोज़ ने इंदिरा गांधी के साथ शादी का प्रस्ताव रखा लेकिन इंदिरा की मां कमला ने इस प्रस्ताव को इंदिरा की कम उम्र होने के कारण ठुकरा दिया। तब इंदिरा मात्र 16 वर्ष की थीं। समय के साथ इंदिरा-फ़िरोज़ के बीच नजदीकियां बढ़ीं और फिर करीब 9 साल बाद 1942 में दोनों ने शादी कर ली। (फ़िरोज़ ने अपने उपनाम को घांदी से बदलकर गांधी शादी से पहले ही स्वयं की इच्छा से कर लिया था।) नेहरू जी हमेशा ही इस रिश्ते के खिलाफ रहे। कुछ दिन सब कुछ ठीक रहा फ़िरोज़-इंदिरा को दो पुत्रों (संजय, राजीव) की प्राप्ति हुई। फिर इंदिरा का राजनीतिक दायित्व बढ़ता गया और दोनों के रिश्ते में खटास व दूरियां भी बढ़ती गईं। मां की मृत्यु के बाद पिता के अकेलेपन को दूर करने व राजनैतिक सहयोग करने की दृष्टि से इंदिरा अपने पिता के आवास पर उनके साथ रहने आ गईं. फ़िरोज़ के किसी और महिला के साथ संबंध होने की बात भी सामने आई। इंदिरा ने फ़िरोज़ से दूरियां मिटाने की कोशिश भी की। दोनों महीने भर के लिए छुट्टियां मानाने श्रीनगर भी गए थे, लेकिन रिश्ते पर इसका कुछ ख़ास असर नहीं पड़ा। बता दें, फ़िरोज़ एक प्रभावशाली लोकसभा सदस्य थे। उन्होंने नेहरू जी द्वारा स्थापित अखबार 'नेशनल हेराल्ड का कार्यभार भी संभाला था।

ये मृत्यु की कहानी और जीवन से जुड़े कुछ विवाद थे। शुरुआत तक जल्द पहुंचेंगे...तब तक अन्य ख़बरों पर गौर फरमाइए।

(नोट- लेख में उपलब्ध जानकारियां कई पुस्तकों व लेखों का अध्यन कर दी गई हैं, केवल बुलैटप्रूफ़ जैकेट वाली राय लेखक की है)

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