साथी हो तो ‘अमित शाह’ जैसा, वरना न हो!

साथी हो तो ‘अमित शाह’ जैसा, वरना न हो!

Ashish Urmaliya ||Pratinidhi Manthan 

मोदी की छवि बनाये रखने के लिएअपनी छवि दांव पर लगा दी।

आपनेदेखा होगा, पिछली पंचवर्षी में जितने भी विरोधी, लिबरल्स, कम्युनिस्ट थे, विरोध करतेवक्त सबकी जुबान पर मोदी का नाम हुआ करता था। अब किसका रहता है?  मोदी की छवि लगभग वैसी ही बनी हुई है, जो 5 सालपहले थी।

शार्प पॉलिटिक्स का पर्याय हैंअमित शाह, बड़े-बड़े पढ़े-लिखे, समझदार भी लपेटे में आ जाते हैं।

यहांमें अमित शाह या मोदी जी के गुणगान करने नहीं बैठा हूं, बस आपको अवगत करा रहा हूं,कि जो लोग अपने आप को भारतीय जनता पार्टी का धुरविरोधी मानते हैं। वो भी अमित शाह केइस गेम को नहीं समझ पाए, कि उन्होंने विरोधियों की जुबान से मोदी का नाम गायब ही करदिया है, धारा 370, CAA, NRC के बाद विरोध के नाम पर सभी की जुबान पर अमित शाह का नामहै।

औरबड़े-बड़े साइकोलॉजिस्ट के मुताबिक, जिस व्यक्ति का नाम बार-बार लिया जायेगा, लोगों केदिमाग में उसी का नाम रहता है। फिर अच्छा हो या बुरा परिणाम उसी व्यक्ति को भुगतनापड़ता है।

अबमाजरा ये है, कि विरोध झेलने के लिए अमित शाह ने अपनी छाती अड़ा दी है और जब चुनाव कीबारी आती है तो वह मोदी के नाम पर लड़ा जाता है। लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं हुआ, दिल्ली में अमित शाह का अलग ही गेम चल रहा था।

दिल्ली के परिणामों का पहले सेही अनुमान था

बड़ेराजनैतिक जानकारों के मुताबिक, अमित शाह का होमवर्क बहुत तगड़ा है। उनको पहले से हीअनुमान था कि दिल्ली का रिजल्ट क्या हो सकता है, इसलिए दिल्ली का मोर्चा उन्होंने हीसंभाला, मोदी का नाम बहुत ही कम उपयोग किया गया, ताकि परिणाम आने के बाद मोदी की छविको नुकसान न हो, दरअसल, मोदी ब्रांड को अमितशाह राष्ट्रीय राजनीति के लिए बचा कर रखनाचाहते हैं। इसीलिए दिल्ली विधानसभा चुनाव में मोदी की सिर्फ 2 रैलियां करवाई गईं, बाकीकी कमान अमित शाह ने संभाली। 

दिल्लीमें मनोज तिवारी को विधानसभा अध्यक्ष बना कर बीजेपी पहले ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारचुकी थी। लेकिन अब अगर अचानक उन्हें पद से हटाया जाता तो बीजेपी को कुछ नुकसान भी उठानापड़ सकता था क्योंकि बीजेपी के पास कोई दूसरा बड़ा चेहरा नहीं था, जो केजरीवाल को चुनौतीदे पाता। अमित शाह जानते थे बीजेपी बैकफुट पर है। जानकारों के मुताबिक, 15 जनवरी तकदिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी का पक्ष खड़ा नहीं हो पा रहा था।बीजेपी का अनधिकृतकालोनियों को नियमितीकरण वाला मुद्दा भी उतना जोर नहीं पकड़ पाया और शाहीन बाग का मुद्दाराष्ट्रीय स्तर का था, शाहीन बाग के मुद्दे को केजरीवाली ने भी बड़ी चतुरता से भुनाया।ऐसे में अमित शाह का टारगेट सिर्फ इतना था, कि कैसे भी कर के बीजेपी को सम्मानजनक स्थितितक पहुंचाया जाये।

इतनेकम समय में प्रचार अभियान को खड़ा करना काफी मुश्किल था, लेकिन अमित शाह ने इतने कमसमय में न सिर्फ चुनाव अभियान खड़ा कर दिया बल्कि, मुख्य लड़ाई में आ गई। असल में भाजपा22 जनवरी के बाद मैदान में उतरी, जब देश गणतंत्र दिवस की तैयारियों में व्यस्त था तबअमित शाह दिल्ली विधानसभा के चुनावों की रणनीति को अंतिम रूप देने में व्यस्त थे।31 जनवरी  आते-आते दिल्ली में अमित शाह ने भारतीयजनतापार्टी को एक सम्मान जनक स्थिति में लेकर खड़ा कर दिया था. और ये परिणाम उसी कानतीजा हैं।

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