जब पाकिस्तानी सैनिक बोले, माधुरी दीक्षित दे दो, तब कैप्टन बत्रा ने क्या किया?

आज यहां हम आपको उस भारतीय शेरकी अनकही कहानी सुनाने जा रहे हैं, जो भारत के गौरव को नई उचाईयों पर ले गया। हम कहानीबताने जा रहे हैं, कैप्टन विक्रम बत्रा की। 
जब पाकिस्तानी सैनिक बोले, माधुरी दीक्षित दे दो, तब कैप्टन बत्रा ने क्या किया?

AshishUrmaliya || Pratinidhi Manthan

वो हमेशा भगवान् से एक सवाल पूछती थी, कि 'दीनानाथ, मैंने तो आपसे सिर्फ एक पुत्र मांगा था, आपने मुझे दो क्यों दिए?' जब एक पुत्र कारगिल के युद्ध में शहीद हो गया, तब उस मां को इस सवाल का जवाब खुद ब खुद मिल गया। बेटा शहीद होने के बाद मां ने कहा, कि मुझे भगवान का जवाब समझ आ गया, उन्होंने एक बेटा मेरे लिए दिया था और एक देश के लिए। कैप्टन बत्रा की मां के ये शब्द ही एहसास दिलाते हैं कि उस मां का बेटा कितना पराक्रमी रहा होगा।

8 जुलाई 1999 को कैप्टन बत्रा के घर सेना के दो बड़े अफसर पहुंचे और उनके पिता को एक तरफ ले जाकर कहा, 'बत्रा साहब, विक्रम अब इस दुनिया में नहीं रहे।' पिता बेहोश होकर वहीं गिर पड़े और मां सदियों तक ठहर गई। इस तरह बत्रा की शहादत की खबर उनके घर पहुंची।    

उसके बाद उसी साल 15 अगस्त 1999 के दिन भारत सरकार द्वारा उन्हें वीरता के सबसे बड़े सम्मान 'परमवीर चक्र' से नवाजा गया। कैप्टन बत्रा के पिता कहते हैं, 'बेशक अपने बेटे की बहादुरी के लिए राष्ट्रपति से परमवीर चक्र का सम्मान ग्रहण करना हमारे लिए बेहद गौरवपूर्ण क्षण था, लेकिन सामारोह ख़त्म होने के बाद उस चक्र के साथ जब हम वापस घर आने को गाड़ी में बैठे, उस वक्त हमारा दूसरा बेटा विशाल भी हमारे साथ था। रास्ते भर मेरी आंखों के आंसू नहीं रुके, विशाल ने मुझसे पूछा डैडी क्या हुआ? मैंने कहा, बेटा अगर ये परमवीरचक्र पुरस्कार विक्रम ने अपने हाथों से लिया होता, तो वो असल मायने में सबसे ज्यादा खुशी का पल होता। इतनी बात कहकर, पिता गिरधारी लाल बत्रा तो खामोश हो गए, मगर उनके वीरसपूत की कहानी असल मायनों में अमर हो गई।

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देश और राज्य की शायद ही कोई बड़ी हस्ती बची होगी, जो आई न हो

हिमाचलप्रदेश के पालमपुर गांव में एक खेल का मैदान है, जिसका नाम 'कैप्टन विक्रम बत्रा स्टेडियम' है। शहीद होने के बाद पालमपुर के इसी मैदान में विक्रम का पार्थिव शरीर लाया गया था। देश और राज्य की शायद ही कोई बड़ी हस्ती रही हो जिसने उनकी अंतिम यात्रा में भाग न ले पाया हो, उनके गांव के कई दूरदराज इलाकों के लाखों की तादात में लोग उनके अंतिमदर्शन करने पहुंचे थे। उस दिन बेटे की विदाई में पूरा शहर रोया था, पूरे देश में ग़मगीन माहौल था।

जन्म-

शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के पालमपुर से सटे बंदला में 9 सितंबर 1974 को हुआ था। पढ़ाई-लिखाई करते हुए बड़े हुए, उनका चयन मर्चेंट नेवी के लिए हो गया लेकिन उन्होंने सेना को अपने भविष्य के रूप में चुना। जब उन्होंने मर्चेंट नेवी ज्वाइन न करने का फैसला लिया तब उनकी मां ने उनसे पूछा, 'तुम ऐसा क्यों कर रहे हो'?

तब विक्रम ने जवाब दिया था, कि 'जिंदगी में पैसा ही सबकुछ नहीं होता मां, मैं जिंदगी में कुछ बड़ा करना चाहता हूं जिससे कि मेरे देश का नाम रौशन हो।'  

फिर विक्रम भारतीय सेना में चयनित हुए और 6 दिसंबर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान परसेना की '13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स' में उन्हें लेफ्टिनेंट का पद मिला। तो आइये अब भारत के इस बहादुर शेर के रोम-रोम उत्तेजित कर देने वाले अनसुने किस्से पढ़िए…

कारगिल में जब भी उनका कोई मिशन सफल होता था, तब कैप्टन बत्रा चीख कर कहा करते थे- 'ये दिलमांगे मोर' और फिर अपने अगले ऑपरेशन की तरफ बढ़ जाते थे। कैप्टन शब्द को असल मायनों में परिभाषित करते थे 'कैप्टन विक्रम बत्रा'।  

मुश्किल और दुर्गम क्षेत्र में होने के बावजूद भी 20 जून 1999 उन्होंने चोटी को पाकिस्तानी सैनिकों से छीन कर खुद के कब्जे में ले लिया। बड़ी से बड़ी मुश्किल की घड़ी में कैप्टन बत्रा के मुंह से एक ही शब्द निकलता था 'ये दिल मांगे मोर'।

'ये दिल मांगे मोर' को कोड के रूप में भी इस्तेमाल किया।

दरअसल,लेफ्टिनेंट जामवाल और कैप्टन विक्रम बत्रा को पाकिस्तान के कब्जे वाली पोस्ट पॉइंट-5140 पर हमला करना था और उसको अपने कब्जे में लेना था। कर्नल योगेश जोशी ने इन दोनों जवानों को बुलाया और इशारा कर के दिखाया, कि देखो, आज रात तुम्हें उस चोटी पर चढ़ाई करनी है, सुबह होने से पहले तक तुम्हें वहां पहुंचना ही होगा।

दोनों जवानों को अलग-अलग रास्तों से जाकर मिशन को अंजाम देना था। इसलिए उनसे पूछा गया कि मिशन की सफलता के बाद उनका कोड क्या होगा? मतलब, जब दोनों अपना काम कर पूरा चुके होंगे तो एक-दूसरे को कैसे बताएंगे। तब लेफ्टिनेंट जामवाल ने कहा सर, मेरा कोड होगा 'ओ येये ये' और विक्रम बत्रा ने कहा मेरा कोड होगा 'ये दिल मांगे मोर'। कर्नल हंस पड़े, यहएक मजेदार वाकया था। आखिर उन्होंने उस चोटी पर विजय प्राप्त कर ली।

'परमवीर' बनने की कहानी-  

'या तो तिरंगे को लहराते हुए आऊंगा या फिर उसमें लिपटकर, पर मैं आऊंगा जरूर'

विक्रम अपने पिता से बात कर रहे थे, वह उनकी आखिरी बातचीत थी। पिता से बात करते हुए उनके आखिरी शब्द यही थे कि 'यू डोंट वरी, या तो मैं लहराते हुए तिरंगे के साथ आऊंगा या फिर उसमें लिपटकर, पर मैं आऊंगा जरूर'। पिता ने एक साक्षात्कार के दौरान इस बात का ज़िक्र किया और कहा, आखिरकार विक्रम बत्रा ने ये दोनों बातें सच करके दिखा दीं, उन्होंने दुश्मन को धूल चटाकर वहां तिरंगे को लहराया और घर तिरंगे में लिपट कर वापस आये, लेकिन आये जरूर।

फिर आ गया वो वक्त-

प्वायंट 4875-  विक्रम बत्रा लगातार दुश्मनों पर फायर कर रहे थे। उस तरफ से भी खूब गोलीबारी हो रही थी। अचानक से उनके एक साथी को गोली लग जाती है और वह घायल हो कर उनके सामने ही खुले में गिर जाता है। दोनों ओर से लगातार गोलीबारी हो रही होती है। विक्रम और उनके साथ रघुनाथ चट्टानों के पीछे बैठकर लगातार फायर कर रहे होते हैं। साथी को घायल अवस्था में देखकर उनसे रहा नहीं गया, उन्होंने रघुनाथ से कहा,'हम अपने साथी को सुरक्षित स्थान पर लाएंगे'।

जवाब में रघुनाथ ने कहा, कि 'मुझे नहीं लगता कि हम ये करने में सफल हो पाएंगे या जिंदा बच पाएंगे, बाहर निकलते ही ऊपर से फायर आएगा और आपको गोली लग भी सकती है।' यह बात सुनते ही कैप्टन विक्रम नाराज हो जाते हैं और रघुनाथ से कहते हैं, क्या आपको डर लग रहा है?  

रघुनाथ ने जवाब देते हुए कहा, 'नहीं साहब मैं डरता नहीं हूं, मैं बस आपको आगाह कर रहा हूं'।अगर आप आदेश देते हैं, तो हम अभी बाहर जाएंगे।

विक्रम ने कहा, 'हम अपने साथी को इस हालत में नहीं छोड़ सकते।' आदेश का पालन करते हुए, रघुनाथ जैसे ही चट्टान के बाहर कदम रखने वाले थे, विक्रम ने उनकी कॉलर को पकड़कर उन्हें खींचा और कहा, 'आपका तो परिवार है, बच्चे हैं, मेरी अभी शादी भी नहीं हुई है सिर की तरफ से मैं उठाऊंगा, आप पैर की तरफ से पकड़ियेगा'।   

यह कहते ही विक्रम आगे बढ़ जाते हैं, वहां पहुंच कर जैसे ही वो अपने घायल साथी को उठा रहे होते हैं उनको गोली लगती है और फिर कई गोलियां लगती हैं, वे वहीं गिर जाते हैं। विक्रमके अंतिम शब्द रघुनाथ के लिए ही थे और यही थे, कि 'तुम हट जाओ तुम्हारे बीवी बच्चे हैं'। 

7 जुलाई 1999 का दिन था, 4875 पॉइंट पर उन्होंने अपनी जान देश के नाम कुर्बान कर दी।जब तक वो जिंदा रहे, लड़ते रहे और अपने साथियों की जान बचाते रहे।

कैप्टन के पराक्रम के और किस्से-

एक इंटरव्यू के दौरान कैप्टन विक्रम ने बताया था, कि एक बार पाकिस्तानी घुसपैठिये और हम एक ही फ्रीक्वेंसी पर थे। उन्होंने हमें चुनौती दी और मेरे से कहा 'शेरशाह ऊपर मत आना, नहीं तो….' इतना सुनते ही मेरे सैनिक गुस्से में आ गए और कहा इनकी हमें धमकाने की हिम्मत कैसे हुई, हम इन्हें ठीक कर देंगे। 

पाकिस्तानी सैनिकों ने विक्रम से फिर कहा, 'शेरशाह वापस चले जाओ नहीं तो तुम्हारी लाश वापस जाएगी।' इसका जवाब देते हुए कैप्टन विक्रम ने कहा, एक घंटा रुक जाओ, पता चल जायेगा किसकी लाशें वापस जाती हैं। अपने लिए प्रार्थना करो।

दुर्गा माता का जयकारा लगाते हुए, अपनी पल्टन के साथ विक्रम बत्रा उन पर टूट पड़े और अपनी बंदूक से पांच सैनिकों को मार गिराया।

अपने आखिरी इंटरव्यू के दौरान उन्होंने यह भी कहा, कि उस वक्त अगर हम एक पल के लिए भी कुछ सोचते हैं तो, या तो वो हमें मार देते या हम उन्हें। 

इस मिशन में विक्रम बत्रा का नाम शेरशाह था। पाकिस्तानी सैनिक कैप्टन के पराक्रम से बखूबी परिचित थे।

भाई के नाम आखिरी पत्र-

प्रिय कुशु,

मैं पाकिस्तानियों से लड़ रहा हूं,

जिंदगी खतरे में है।

यहां कुछ भी हो सकता है,

गोलियां चल रही हैं|

मेरी बटालियन के एक अफसर

आज शहीद हो गए हैं।

नॉर्दन कमांड के सभी सैनिकों की

छुट्टी कैंसिल हो गई है।

पता नहीं कब वापस आऊंगा?

तुम मां और पिता जी का ख़्याल रखना,

यहां कुछ भी हो सकता है।

यह ख़त विशाल के लिए उनकी आखिरी याद बन कर रह गया। कैप्टन विक्रम के जुड़वा छोटे भाई विशाल कहते हैं, "जब मैं छोटा था, तो किसी भी शव को देखकर डर जाता था, मगर नियक्ति का खेल देखिये, जब भाई का शव आया तो मैंने ही पहचाना, वो तिरंगे से लिप्त हुआ था। मैंने खुद उन्हें ताबूत से बाहर निकाला यह मेरे जीवन का पहला अंतिम संस्कार था।" 

कारगिल युद्ध का प्रमुख चेहराबन चुके थे-

देश के परमवीर चक्र विजेताओं के ऊपर एक किताब लिखी गई है जिसका नाम है, 'द ब्रेव'। इस किताब में जिक्र मिलता है कि 'विक्रम कारगिल की लड़ाई का सबसे जाना पहचाना चेहरा बन गए थे'। उनकी शख्सियत ही कुछ ऐसी थी, कि जो भी उनके संपर्क में आता था, उन्हें कभी भूल नहीं पाता था। जब उन्होंने 5140 चोटी जीती और कहा ये दिल मांगे मोर, उस पल उन्होंने पूरेदेश की भावनाओं को जीत लिया था। उस वक्र आर्मी चीफ ने कहा था, कि 'अगर कैप्टन बत्रा शहीद न हुए होते, तो मेरी जगह पर होते'।

यहां से मिली थी सेना में जानेकी प्रेरणा-

जंगके मैदान में भी मुस्कुराते रहने वाले कैप्टन बत्रा को भारतीय सेना में जाने की प्रेरणा1985 में दूरदर्शन में प्रसारित होने वाले सीरियल "परमवीर चक्र" को देख करमिली थी। उसी दौरान उन्होंने ठान लिया था कि सेना में जाकर देश की सच्ची सेवा करनी है।

विक्रमके भाई विशाल ने बताया, उस वक्त उनके घर में टीवी नहीं हुआ करता था। इसलिए वे पड़ोसी के घर जाकर टीवी देखा करते थे। उन्होंने कहा, कि 'मैं सपने भी नहीं सोच सकता था, किकभी उस सीरियल की कहानियां, एक दिन हमे जीवन का हिस्सा बन जाएंगी।' 

कैप्टन बत्रा के पिता गिरधारी लाल बत्रा अपने बेटे की शहादत पर गर्व करते हैं, सरकार से भीउन्हें कोई आपत्ति नहीं है। मगर उनकी ख्वाहिश है, कि देशभर के स्कूल और कॉलेजों के पाठ्यक्रम में परमवीरचक्र विजेताओं की वीर गाथाएं जोड़ी जाएं और उन्हें देश के बच्चोंको पढ़ाया जाए। पिता कहते हैं, 'जिस उम्र में बच्चों को अच्छे बुरे की पहचान भी नहीं होती, उस उम्र में विक्रम ने अपने नेत्रदान करने का निर्णय ले लिया था'। मुझे अपनेबेटे पर गर्व है।

एक और साहसिक वाकया 'पाकिस्तानीसैनिक के मुंह से 'माधुरी दीक्षित' का नाम सुनते ही लाशें बिछा दी थीं' – 

युद्ध के दौरान एक पाकिस्तानी घुसपैठिये ने विक्रम बत्रा से बोला, 'हमें माधुरी दीक्षित दे दो, हम तुम्हारे लिए नरमदिल हो जायेंगे'। इस बात को सुनकर कैप्टन बत्रा मुस्कुराए और अपनी AK-47 से फायर करते हुए बोले 'ये लो माधुरी दीक्षित के प्यार के साथ' और कुछ ही देर में वहां कई पाकिस्तानी सैनिकों की लाशें बिछा दीं। 

उनको देखते ही वो रोने लगी थी, क्योंकि उसे अंदाजा था, कि इस तरह अफसर कोई दुखद समाचार देने ही आ सकते हैं, उन्होंने भगवान से प्रार्थना प्रार्थना की और मुझे फोन मिला कर तुरंत घर आने को कहा। मैं घर पहुंचा, अफसरों के चेहरे देखते ही समझ गया कि विक्रम इस दुनिया से जा चुके हैं। इससे पहले कि वो मुझसे कुछ कहते, मैंने उनसे कुछ देर इंतजार करने कोकहा। मैं पूजाघर गया भगवान् के सामने अपना माथा टेका। जैसे ही बाहर आया, अफसरों ने मेरा हाथ पकड़ा और एक तरफ आने को कहा, फिर उन्होंने वो खबर सुना दी, जिसने मुझे भीतर तक झकझोर दिया। उन्होंने कहा- 'बत्रा साहब विक्रम अब इस दुनिया में नहीं रहे'।     

आखिरी बार जब विक्रम ड्यूटी पर निकले थे तो अपने साथ घर का बनाया अचार लेकर गए थे। पूरा परिवार उन्हें बस स्टैंड तक छोड़ने गया था, जैसे ही बस चली कैप्टन ने खिड़की के अपना हाथ बाहर निकाला और हमारी ओर देखते हुए हिलाया, हमें क्या पता था कि विक्रम से ये हमारी आखिरी मुलाकात है, अब वो कभी हमारे पास लौटकर कभी वापस नहीं आएंगे। 

कारगिलयुद्ध में मिशन के दौरान एक विस्फोट हुआ, सीने में आकर एक गोली लगी और देश का लाडला शेर, वीर सपूत सभी को 'जय माता दी' कहते हुए कुर्बान हो गया। 

ऐसे शहीद हो गया भारत का शूरवीर… परमवीर लेफ्टिनेंट कैप्टन विक्रम बत्रा।

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