लगातार 3 बार से चुनाव हार रहे कोंग्रेसी नेता 'जितिन' भाजपा में आए तो इतना शोर क्यों मच रहा है? जानिए...

उत्तर प्रदेश के जितिन प्रसाद अब भाजपाई नेता हो गए हैं. जैसे ही भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा जी ने जितिन प्रसाद के गले में कमल के फूल वाला गमछा डाला जितिन भाजपाई रंग में रंग गए. तस्वीर सोशल मीडिया पर पोस्ट होते ही यह खबर ब्रेकिंग न्यूज़ बन गई. भाजपाई भारी खुस नज़र आये और कोंग्रेसियों ने जितिन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनाटे ने जितिन प्रसाद पर सुविधा की राजनीति करने का आरोप लगा दिया है. एक और नेता मानवेंद्र सिंह जो जितिन के करीबी हैं उन्होंने कहा है कि 'अगर कांग्रेस का ऐसा ही रवैया रहा तो आज तो सिर्फ सिंधिया, जितिन जैसे नेताओं ने साथ छोड़ा है, कल को यह पार्टी सिर्फ एक परिवार की पार्टी बन कर रह जाएगी.
L- J.P. Nadda,  R-Jitin Prasad
L- J.P. Nadda, R-Jitin Prasad

हाइलाइट्स:

- जितिन प्रसाद का कांग्रेस के साथ तीन पीढ़ियों का साथ रहा.

- कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने जितिन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था.

- पिता के जूते पहनकर राजनीति में आए थे जितिन प्रसाद.

- पूरे कोंग्रेसी नेता भाजपा में आ जाएंगे तो भाजपा-कांग्रेस में फ़र्क क्या रह जाएगा?

मीडिया में इतनी कवरेज क्यों मिल रही है?

बवाल इसलिए मचा हुआ है क्योंकि जितिन प्रसाद का परिवार पिछली तीन पीढ़ियों से कांग्रेस के साथ जुड़ा हुआ है. लेकिन अब उत्तर प्रदेश के शाही परिवार से ताल्लुक रखने वाले जितिन प्रसाद ने केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल की उपस्थिति में भाजपा का हाथ थाम लिया है. राहुल गांधी के सबसे करीबी नेता माने जाने वाले जितिन प्रसाद ने अपने गले में भगवा रंग का गमछा दाल लिया है. चर्चाओं का बाजार बुधवार सुबह से ही गर्म हो चुका था कि कोई बड़ा कोंग्रेसी नेता सकता है. दोपहर होते-होते आशंकाओं के बादल छंट गए और तस्वीर सामने आ गई. तस्वीर के सामने आते ही जितिन प्रसाद के पीछे कांग्रेस का झंडा लेकर चलने वाले कार्यकर्ताओं ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया, ट्विटर पर उनके खिलाफ भद्दे शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है.

कांग्रेस पार्टी उन पर भड़की हुई नज़र आ रही है...

कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनाटे ने आरोप लगाया है कि जितिन सुविधा की राजनीती कर रहे हैं. उन्होंने कहा, सोनिया गांधी के कांग्रेस की कमान संभालने के बाद जितिन प्रसाद के पिता जितेंद्र प्रसाद ने उनका भारी विरोध किया था. यहां तक कि उनके पिता ने सोनिया के विरोध में चुनाव लड़ा था। इस सब के बावजूद कांग्रेस पार्टी ने जितिन को बड़े-बड़े पद दिए। पार्टी ने उन्हें अपनी सर आंखों पर रखा, लगातार मौके दिए. उन्हें युवा कांग्रेस का महासचिव, सांसद और फिर कांग्रेस की सरकार में मंत्री तक बनाया गया. सुप्रिया ने कहा कि ‘उनका बड़ा दुर्भाग्य है जो उस कांग्रेस पार्टी छोड़ गए जिसने उन्हें इतना कुछ दिया.' क्या यह सहूलियत की राजनीति नहीं है?'

क्या भाजपा ने ब्राह्मण कार्ड खेला है?

यह देखना दिलचस्प होगा कि लगातार तीन बार से चुना हार रहे जितिन प्रसाद भाजपा के लिए कितने फायदेमंद साबित हो सकते हैं? उन्हें बीजेपी के ब्राह्मण कार्ड के तौर पर क्यों देखा जा रहा है? अपने क्षेत्र में उनका क्या जनाधार है? जितिन के क्षेत्र के अलावा उनके भाजपा में शामिल होने से पूरे उत्तर प्रदेश की राजनीति पर क्या फर्क पड़ेगा? आखिर मीडिया में इतना शोर शराबा क्यों है? क्या भाजपा द्वारा कसी तरह की लहर बनाने की कोशिश की जा रही है? इन सभी सवालों के जवाब 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के बाद मिलेंगे.

पिता जितेंद्र प्रसाद ने सोनिया गांधी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था-

शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश की एक चर्चित लोकसाभा सीट है. जितिन प्रसाद इसी शहर के मूल निवासी हैं. जितिन के पिता जितेंद्र प्रसाद कांग्रेस के कद्दावर नेता माने जाते थे. शाहजहांपुर सीट से ही वे 4 बार सांसद का चुनाव जीते थे. उनका आखिरी लोकसभा चुनाव 1999 का चुनाव था. इसके ठीक एक साल बाद ही यानि सन् 2000 में जितेंद्र प्रसाद ने कांग्रेस के नेतृत्व के खिलाफ बगावत छेड़ दी थी. उन्हें सोनिया गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना गंवारा नहीं था इसलिए जमकर विरोध किया. वे वरिष्टता के आधार पर स्वयं को कांग्रेस के अध्यक्ष पद का दावेदार मानते थे इसलिए फिर उन्होंने सोनिया गांधी के खिलाफ कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा, मगर हार गए. इसके कुछ महीनों बाद ही उनका जनवरी, 2001 में निधन हो गया. बगावत का चैप्टर क्लोज फिर टाइम शुरू होता है उनके बेटे जितिन का.

राजनीति विरासत में मिल गई, मात्र 30 की उम्र में सांसद बन गए...

जब पिता का निधन हुआ तब जितिन मात्र 26 साल के थे, राजनीति अपने पिता से विरासत में मिल गई. कांग्रेस पार्टी द्वारा उसी वर्ष उन्हें यूथ कांग्रेस का महासचिव बना दिया गया. 3-4 साल खूब राजनीति की और सीखी. सन् 2004 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की टिकट पर मात्र 30 वर्ष की उम्र में सांसद बन गए. पार्टी ने उन्हें पिता की परंपरागत सीट शाहजहांपुर से उम्मीदवार बनाया था. पुश्तैनी सीट थी, परिवार से लोगों की भावनाएं जुडी हुई थीं, 34.83 फीसदी वोटों के साथ जीत गए. इसके बाद साल 2008 में उन्हें इस्पात राज्य मंत्री का कार्यभार सौंपा गया. अब तक जितिन अपने लोकसभा क्षेत्र में बेहद लोकप्रिय हो चुके थे. कारण ये था कि वे अक्सर लोगों के बीच बने रहते थे उनकी समस्याओं का तत्काल समाधान कर दिया करते थे. 'प्रसाद भवन' के दरवाजे हर किसी के लिए हमेशा खुले रहते थे, कोई भी कभी भी आकर अपनी बात रख पता था.

2009 में खुद की दम पर जीते:

2004 की उनकी जीत को उनके पिता के साथ जुडी संवेदनाओं की जीत माना जाता रहा लेकिन 2009 में उन्होंने ये सिद्ध कर दिया कि उनके अंदर एक राजनेता बनने की काबिलियत है. 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले क्षेत्र का परिसीमन हुआ और लखीमपुर-खीरी, सीतापुर और शाहजहांपुर जिलों से एक नई लोकसभा सीट 'धौरहरा' निकलकर अस्तित्व में आई. जितिन ने इसी सीट से चुनाव लड़ा और पुनः सांसद बने. उनकी इस जीत के पीछे का सबसे बड़ा कारण उनका लखीमपुर-खीरी में रेल की बड़ी लाइन लाने का वादा माना जाता है क्योंकि लखीमपुर की जनता लंबे समय से इसकी मांग कर रही थी. 2009 से लेकर 2014 तक का दौर जितिन के राजनीतिक करियर का स्वर्णिम दौर रहा क्योंकि इस दौरान वे सड़क परिवहन, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस और मानव संसाधन विकास मंत्रालय जैसे बड़े मंत्रालयों में राज्य मंत्री रहे. कांग्रेस पार्टी में उनकी एक अलग ही छवि बन चुकी थी. राहुल गांधी के बेहद करीबी माने जाने लगे थे.

2014 का साल ग्रहण बन कर आया...

2014 के लोकसभा चुनाव में जितिन को पहला जोरदार झटका लगा जब वे मोदी लहर में अपनी ही लोकसभा सीट धौरहरा में बुरी तरह हारे. धौरहरा में बीजेपी की उम्मीदवार रेखा वर्मा रिकॉर्ड मतों से जीतीं और जितिन महज 16 फीसदी मतों के साथ चौथे नंबर पर रहे. उनका संघर्ष का दौर शुरू हो चुका था पार्टी में भी और जमीनी स्तर पर भी. हालांकि 2017 के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने उन्हें तिलहर विधानसभा सीट से उम्मीदवार बनाया लेकिन यहां पर भी उन्हें फिर से हार का सामना करना पड़ा. इस हार के बाद उनका राजनीतिक भविष्य खतरे में दिखाई देने लगा था. हालांकि पार्टी ने उन पर फिर से भरोसा दिखाया और 2019 में पुनः उनको उनकी पुरानी धौरहरा लोकसभा सीट से टिकट दिया. इस बार उनकी पिछली बार से भी ज्यादा बुरी हार हुई, मात्र 15 फीसदी वोट हासिल कर पाए और तीसरे स्थान पर रहे.

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