(कथा की शुरुआत)
देवशयनी एकादशी, जिसे आषाढ़ शुक्ल एकादशी के नाम से जाना जाता है, हिंदू धर्म में अत्यधिक महत्वपूर्ण और पवित्र व्रत माना जाता है। यह दिन विशेष रूप से भगवान विष्णु के योगनिद्रा में प्रवेश करने का प्रतीक है। इस दिन से ही चातुर्मास की शुरुआत होती है, जो कि चार महीनों तक चलता है, जिसमें भगवान विष्णु विश्राम करते हैं और देवताओं की गतिविधियाँ धीमी हो जाती हैं। आइए इस एकादशी की कथा को विस्तार से जानें, जो भगवान विष्णु की अनंत कृपा और धर्म की महत्ता को दर्शाती है।
प्राचीन समय की बात है, सत्ययुग में, एक अत्यंत धर्मनिष्ठ राजा मांधाता का शासन था। राजा मांधाता अपने राज्य में न्याय, धर्म और सच्चाई का पालन करते थे। उनका राज्य सुख-शांति से परिपूर्ण था। लेकिन एक बार उनके राज्य में भयंकर अकाल पड़ गया। वर्षों तक बारिश नहीं हुई, जिससे प्रजा त्राहि-त्राहि करने लगी। खेती बर्बाद हो गई और भूख से लोग मरने लगे। राजा मांधाता ने राज्य के विद्वानों और ऋषियों से इस समस्या का समाधान जानना चाहा, लेकिन कोई ठोस उपाय नहीं मिला।
राजा मांधाता इस समस्या से अत्यंत चिंतित थे। तब उन्हें ऋषि अंगिरा की याद आई, जो महान तपस्वी और ज्ञानी थे। राजा ऋषि अंगिरा के पास गए और अपनी समस्या उनके सामने रखी। ऋषि अंगिरा ने ध्यानमग्न होकर राजा की बात सुनी और कहा, "हे राजन, तुम्हारे राज्य में जो यह अकाल पड़ा है, वह किसी पाप के प्रभाव से हो रहा है। इसका समाधान केवल भगवान विष्णु की आराधना से हो सकता है। तुम्हें आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी, जिसे देवशयनी एकादशी कहा जाता है, का व्रत करना चाहिए। इस व्रत के प्रभाव से भगवान विष्णु प्रसन्न होंगे और तुम्हारे राज्य की सभी समस्याएँ दूर हो जाएँगी।"
ऋषि अंगिरा के आदेश का पालन करते हुए राजा मांधाता ने देवशयनी एकादशी का व्रत रखा। उन्होंने अपने पूरे राज्य को भी इस व्रत का पालन करने के लिए प्रेरित किया। राज्यभर में भगवान विष्णु की आराधना की गई और लोगों ने पूरे दिन उपवास रखा। राजा मांधाता और उनके राज्यवासियों ने नियमपूर्वक व्रत का पालन किया और भगवान विष्णु से कृपा की कामना की।
व्रत के पूर्ण होने के बाद भगवान विष्णु प्रसन्न हुए और उन्होंने राजा मांधाता को दर्शन दिए। भगवान ने राजा से कहा, "हे राजन, तुमने सच्चे हृदय से देवशयनी एकादशी का व्रत किया है। इस व्रत के प्रभाव से तुम्हारे राज्य का अकाल समाप्त हो जाएगा और पुनः सुख-समृद्धि का आगमन होगा।"
भगवान विष्णु की कृपा से राजा मांधाता के राज्य में पुनः वर्षा होने लगी। फसलें लहलहाने लगीं, और राज्य में फिर से शांति और समृद्धि लौट आई। सभी राज्यवासी भगवान विष्णु की कृपा के प्रति कृतज्ञ हुए और देवशयनी एकादशी का महत्व समझ गए।
देवशयनी एकादशी का व्रत केवल पापों से मुक्ति का साधन नहीं है, बल्कि यह चातुर्मास के प्रारंभ का प्रतीक भी है। इस दिन भगवान विष्णु क्षीरसागर में योगनिद्रा में प्रवेश करते हैं और चार महीनों तक विश्राम करते हैं। इस अवधि के दौरान सभी शुभ कार्य जैसे विवाह, गृह प्रवेश आदि निषिद्ध माने जाते हैं। चार महीनों तक भगवान विष्णु का ध्यान और साधना करने से व्यक्ति को अपार पुण्य की प्राप्ति होती है। चातुर्मास का समापन देवउठनी एकादशी पर होता है, जब भगवान विष्णु योगनिद्रा से जागते हैं।
देवशयनी एकादशी की यह कथा हमें यह सिखाती है कि भगवान विष्णु की भक्ति और एकादशी व्रत के पालन से सभी प्रकार के संकटों का नाश होता है। इस एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति को अपार पुण्य प्राप्त होता है, और उसके जीवन की सभी समस्याएँ समाप्त हो जाती हैं। जो कोई भी इस व्रत का पालन करता है, उसे भगवान विष्णु की अनंत कृपा प्राप्त होती है और उसके जीवन में सुख, शांति और समृद्धि का आगमन होता है।
"देवशयनी एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति के सभी पाप समाप्त हो जाते हैं, और भगवान विष्णु की कृपा से उसे जीवन में सुख-समृद्धि और मोक्ष की प्राप्ति होती है।"